Saturday, March 6, 2010

ऐ पुरुष! महिलाओं के भोलेपन का फायदा उठाना छोड़ दो

ऐ (का) पुरुष! तुम कब अपनी नजर को साफ करोगे? पाक साफ? जब देखो तुम महिलाओं को घूरने का काम करते रहते हो, महिलाओं के वस्त्रों के भीतर भी झाँक कर उसे नग्न रूप में देख लेते हो। समझ नहीं आता कि तुम कैसे अपनी माँ-बहिन को छोड़ देते हो (अब ये भी बीते जमाने की बातें हो गईं हैं, अब तो तुम अपनी सगी माँ-बहिन को भी नहीं छोड़ते)।


इस बात को समझो कि स्त्री की नग्नता को तुम पुरुषों ने ही दिखाया है, उसे अपने शरीर को दिखाने को विवश किया है। विवशता को तुम नहीं समझ सकते हो क्योंकि तुम नारी नहीं हो। हाँ, बात हो रही थी देह दर्शन की तो पुरुष समाज ने ही नारी को बाजार का उत्पाद बना दिया है। नारी ने कहाँ चाहा था स्वयं का उत्पाद हो जाना, उसे तो पुरुष ने अपनी चेरी बना कर, दासी बनाकर बाजार में नग्न रूप में खड़ा कर दिया।

पुरुष का मतलब समझते हैं? वो जो हर पल बस महिलाओं के शरीर पर ही निगाह जमाये रखता है। विज्ञापन हो, फिल्म हो, किसी फिल्म का आइटम सांग हो सभी में नारी देह के दर्शन के लिए पुरुष ही जिम्मेवार है। हो सकता है कि किसी पुरुष ने जोर-जबरदस्ती से, मारपीट कर किसी महिला से यह बयान दिलवाया हो कि नारी की देह नारी की है, वह उसे किसी भी तरह से प्रदर्शित करे।

नारी तो हमेशा से भोली-भाली रही है, उसे हर काल में, हर परिस्थिति में पुरुष ने ही बरगलाया है। कभी उसके साथ शादी का स्वप्न दिखा कर, कभी प्रेम के सब्जबाग दिखा कर, कभी नौकरी के नाम पर और जब किसी भी तरह से स्त्री ने अपनी हामी नहीं भरी तो उसके साथ बलात्कार करके। यह नारी का कोमल स्वभाव और भोलापन ही कहा जायेगा कि उसने बिना इस बात को समझे कि पुरुष शादीशुदा है उसके साथ सम्बन्ध बनाये। बिना अपने परिवार का ख्याल करके वह अपने बच्चों को छोड़कर अपने प्रेमी के साथ रफूचक्कर हो जाती है। अरे! भूल गये, महिला क्या अकेले ही जिम्मेवार है परिवार को चलाने के लिए? बच्चे कौन से उसने अकेले पैदा किये थे तो वही अकेले क्यों बच्चों की परवरिश पर ध्यान दे?

कहाँ मिलेगा इतना भोलापन? इसी भोलेपन में वह भूल जाती है कि देह की नग्नता कहाँ से शुरू होती है? उसे यह भी ध्यान नहीं रहता कि सिक्कों की खनक के आगे देह की चमक कहाँ ठहरती है? स्वयं को अप्सरा बना देने की मंशा में वह भूल जाती है कि उसकी देह के कपड़े कहाँ से शुरू होते हैं और कहाँ पर समाप्त होते हैं? कितना भोलापन है बेचारी (क्षमा करें बेचारी नहीं) उसके पास। और तुम पुरुष जिसके पास सिवाय देह को नापने की दृष्टि के कोई और दृष्टि भी नहीं; पुरुष तुम्हारे पास कमर के नीचे सोचने के अलावा भी कुछ और नहीं है; पुरुष तुम किसी भी महिला के कपड़ों से झाँकते उसके अंगों की ओर क्यों निहारते हो? क्या तुम्हें नारी देह पर चढ़े कपड़ों की डिजाइन नहीं दिखती? लगता है कि तुम महिलाओं में सिर्फ और सिर्फ उसकी देह को तलाशते हो।

ऐसा तुम कब तक करोगे? क्यों किसी स्त्री को स्त्री नहीं समझोगे? क्यों तुम अपनी काम पिपासा को कम नहीं करोगे? तुम्हें मालूम होना चाहिए कि महिलाओं में काम भावना नहीं होती; उन्हें पुरुषों की देह से कोई मतलब नहीं होता है; उसकी सोच सदा और सदा अपने व्यक्तित्व को उभारने पर ही होती है।


छोड़ दो महिलाओं की देह को पर्दे पर प्रस्तुत करना। तुम्हीं हो जो अपने अंडरबियर तक के विज्ञापन में महिलाओं को उतार देते हो। उसे तुम्हारे पैसों की दरकार नहीं, उसे रुपहले पर्दे पर अपने आपको साबित करने की चाह नहीं। वह तो तुम हो पुरुष वर्ग जो महिलाओं को किसी न किसी तरह से अपने वश में करके उससे उसकी देह को प्रदर्शित करवा ही लेते हो।

अब इस सब ड्रामें को बन्द कर दो पुरुष! वर्ना....................... समझदार को इशारा काफी है।

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अन्त में महिलाओं के भोलेपन पर एक महिला मित्र द्वारा सुनाया गया चुटकुला-
दो लड़कियाँ आपस में बातचीत कर रहीं थीं। एक सहेली ने दूसरी से पूछा - यार! ये लड़के लोग आपस में अकेले में कैसी बातें करते हैं?
दूसरी सहेली ने हँस कर कहा - वही बातें जो हम करते हैं, जैसी हम करते हैं।
पहली लड़की ने लजाते हुए कहा - धत्! इतनी गंदी-गंदी बातें!!!!

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समय निकाल कर इस लिंक को भी देखा जा सकता है

महिलाओं के भोलेपन के चित्र हम यहाँ नहीं दे सकते क्योंकि बहुत से सभ्य पुरुष और बहुत सी सभ्य महिलाएं इस पोस्ट को पढेंगे। वैसे आप सभी ऐसे चित्रों को गूगल पर सर्च के द्वारा देख तो सकते ही हैं।
ब्लॉग में भी बहुत से ब्लॉग इसकी पूर्ति करते हैं।

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यहाँ प्रदर्शित चित्र गूगल छवियों से साभार

8 comments:

makrand said...

bahut khub sir

kshama said...

Swagat hai..karara vyang!

Lal Sant Kumar Shahdeo said...

महिला दिवस पर आपका लेख अच्छा है।

Dr. shyam gupta said...

अर्थात- हमाम में दोनों ही नन्गे हैं, बहुत सही आकलन ।
---- तो कहा जाय -स्त्री-पुरुष विमर्श

shama said...

Achha kataksh hai!

जयराम “विप्लव” { jayram"viplav" } said...

कली बेंच देगें चमन बेंच देगें,

धरा बेंच देगें गगन बेंच देगें,

कलम के पुजारी अगर सो गये तो

ये धन के पुजारी वतन बेंच देगें।

हिंदी चिट्ठाकारी की सरस और रहस्यमई दुनिया में राज-समाज और जन की आवाज "जनोक्ति "आपके इस सुन्दर चिट्ठे का स्वागत करता है . . चिट्ठे की सार्थकता को बनाये रखें . नीचे लिंक दिए गये हैं . http://www.janokti.com/ , साथ हीं जनोक्ति द्वारा संचालित एग्रीगेटर " ब्लॉग समाचार " http://janokti.feedcluster.com/ से भी अपने ब्लॉग को अवश्य जोड़ें

संगीता पुरी said...

इस नए चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्‍लॉग जगत में स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

डॉ० डंडा लखनवी said...

वस्तुतः बर्बर युग में एक सामाजिक अवधारण स्थापित हुई थी -‘धरती वीरों की भोग-वस्तु है’। इस आवधारणा अंर्तगत नारियाँ और सूद्र दोनों बलशालियों की भोग-वस्तु बनाए जाते रहे हैं। उस युग के लक्षण आज भी हमारे समाज में व्याप्त हैं। बलशालियों के दंभ-दंशों से नारियों और सूद दोनों में छटपटाहट है । वे मुक्ति की चाहते हैं।
काश ! संसार में बल के स्थान पर विवेक का छत्र स्थापित हो। युगों-युगों से चली आ रही जड़ता टूटे। मनुष्य-मनुष्य के मध्य सह-अस्तित्व की भावना प्रगाढ़ हो। स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक बने। हमारे विद्यालय शील संचरण के केन्द्र बने । व्यवसायिकता शील और संयम के आधार पर खडी़ हो । बिना शील और संयम के आधार पर खडे़ उद्योग और धंधे नारी को भोग्या के रूप में विज्ञापित करते रहेंगे। हमारे सारे प्रयास मात्र कागजी घोड़े सिद्ध होंगे ।