Friday, December 4, 2009

पुरुष-विमर्श किसी के विरुद्ध नहीं, समाज संतुलन का प्रयास है

पुरुष विमर्श की शुरुआत हुई, टिप्पणियों के द्वारा आपके मन की बात पता चली साथ ही कुछ मेल भी मिलीं। इधर एक बात पर आप सभी का ध्यान चाहेंगे कि पुरुष विमर्श किसी के विरुद्ध नहीं स्वयं पुरुष का पुरुष से ही है।
हम हमेशा बदलाव की बात करते हैं, किसी भी विमर्श के बहाने से अपना कोई प्रतिद्वंद्वी बना लेते हैं, आखिर क्यों? क्या बिना प्रतिद्वंद्वी के कोई विमर्श नहीं हो सकता है? दो मेल के द्वारा कहा गया कि यह स्त्री-विमर्श के विरुद्ध चलाया गया आन्दोलन है। कुछ इसी तरह की बात टिप्पणी के द्वारा भी आई कि कैसा आन्दोलन?
एक बात पर गौर किया जाये कि क्या समाज में किसी एक के द्वारा समूचा संचालन हो सकता है? वह चाहे स्त्री हो या फिर पुरुष? ऐसे में यदि दोनों पक्ष अपना-अपना झंडा बुलन्द किये आपस में मनमुटाव करते रहेंगे तो समाज का संतुलन बिगड़ जायेगा और एक दिन समस्त क्रियाकलापों पर विराम सा लग जायेगा।
पुरुष विमर्श की शुरुआत करने से पहले बहुत विचार किया। सोचा कि विमर्श किसी एक पक्ष से नहीं, समूची मानवता को लेकर किया जाये। फिर लगा कि मानवता की बात करते-करते तो राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर जैसे महापुरुषों के अतिरिक्त कबीर, तुलसी, रैदास, नानक जैसे संत कवि भी इस दुनिया को छोड़ गये पर लोगों को मानवता का पाठ नहीं पढ़ा सके तो हम क्या हैं?
इस विचार के बाद आया कि समाज की कुछ स्त्रियाँ स्त्री-विमर्श का झंडा बुलन्द किये हैं और यदि कुछ लोग पुरुष-विमर्श का आन्दोलन छेड़ दें तो समाज में संतुलन बनने की सम्भावना है। स्त्री-पुरुष के रूप में सारे विमर्शों को पूरा किया जा सकता है।
एक बात जो स्त्री-विमर्श वालों और हम पुरुष-विमर्श वालों के ऊपर सही साबित होती है कि हम बजाय दूसरों के दोष निकालने के स्वयं को सुधारने का कार्य करें तो विमर्श की सही-सही उपयोगिता सिद्ध होगी। होता यह है कि स्त्री-विमर्श के नाम पर पुरुषों पर दोषारोपण का सिलसिला चलता रहता है। इससे स्वयं स्त्री की दशा तो सुधरती नहीं है समाज में स्त्री-पुरुष संतुलन भी बिगड़ता है।
पुरुष-विमर्श के नाम पर यह कदापि नहीं होना है। पुरुष समाज को स्वयं अपने आपमें झांकना होगा और देखना होगा कि वास्तव में कमी कहाँ है? पुरुष समाज के जो दबे कुचले लोग हैं उनके सुधार के लिए कार्य करना है। हमें प्रतिद्वंद्विता नहीं वरन् समता भाव से समाज के पुनर्निर्माण का कार्य करना है। शायद पुरुष विमर्श के द्वारा ही यह सम्भव है।

1 comment:

निर्मला कपिला said...

होता यह है कि स्त्री-विमर्श के नाम पर पुरुषों पर दोषारोपण का सिलसिला चलता रहता है। इससे स्वयं स्त्री की दशा तो सुधरती नहीं है समाज में स्त्री-पुरुष संतुलन भी बिगड़ता है
बस आपस मे जो भी झघडा है इसी बात पर है। फिर भी एक बात जरूर कहूँगी कि आप कभी गावों मे जा कर औरत की दशा जरूर देखें। कुछेक आधुनिक औरतों को देख कर आप सही पुरुष विमर्श भी नहीं कर पायेंगे। पहले इतिहास पर नज़र डाल कर देखें कि इत्रि के इस क्षोभ के पीछे क्या है उसे क्यों जरूरत पडी गलियों सडकों पर उतरने की तब आप पुरुष विमर्श को सही दिशा दे पायेंगे। और मेरा मानना है कि इस विमर्ष पर भी सब स्त्रि पुरुषों को भाग लेना चाहिये। ताकि सही तस्वीर सामने आये।